नोनिया विद्रोह - बिहार में स्वतंत्रता संघर्ष



(1770-1800) 1757 के प्लासी युद्ध के समय तक बिहार शोरा उद्योग का प्रमुख केन्द्र
था। बारूद बनाने में शोरा का उपयोग होता था क्लाइव ने मीरजापुर से शोरा बनाने की
इजारेदारी अंग्रेज सौदागरों के लिए प्राप्त कर ली।
इस व्यापार पर अपनी इजारेदारी स्थापित कर अंग्रेजों ने जल्दी ही फ्रांसीसियों, डचों
और डेनों से समझौता किया इस समझौते के अनुसार शांतिकाल में डचों को 23 हजार
मन, फ्रांसीसियों को 18 हजार मन और डेनों को 16 हजार मन शोरा प्रतिवर्ष अंग्रेज
सौदागर देते थे। खुद हिन्दुस्तान के अन्दर बारूद बनाने के लिए अंग्रेजों को इसकी जरूरत
थी। इस जरूरत को पूरा करने के लिए 1784 में बम्बई को 15 हजार मन, मद्रास को
14 हजार 4 सौ मन और फोर्ट मार्लबरो को 1250 मन दिया गया था बंगाल की जरूरत
6 सौ मन प्रतिमास अर्थात् 7 हजार 2 सौ मन प्रतिवर्ष थी इंगलैंड में बिहार के शोरे की
खपत 1768-88 में औसतन 26 हजार बोरे प्रतिवर्ष थी युद्ध के समय इसकी मांग
इंगलैंड में बहुत बढ़ जाती थी।
बिहार में शोरे के उत्पादन का मुख्य केन्द्र हाजीपुर, तिरहुत, सारण और पूर्णिया था।
बंगाल में रंगपुर में शोरे का उत्पादन 1773 में बन्द कर दिया गया। पूर्णिया में बना शोरा
निजामत शोरा कहलाता था, क्योंकि इसका एक हिस्सा नवाब को दिया जाता था, ताकि
उत्सवों के दिन इस्तेमाल के लिए वह बारूद तैयार करा सके। 1788 में पूर्णिया में शोरे
का उत्पादन बन्द हो गया।
ईस्ट इंडिया कंपनी के शोरा बनाने के पाँच कारखाने थे जिनका वार्षिक उत्पादन
130,000 मन से लेकर डेढ़ लाख मन था इसके चार कारखानों का उत्पादन इस प्रकार
था। सिंधिया : 54 हजार मन, छपरा : 57 हजार मन, हाजीपुर : 3 हजार मन और
फतुवा : 8 हजार मन।
शोरे की माटी इकट्ठा करने और उसे तैयार करने का काम नोनिया करते थे।
चूँकि यह माटी नोनी माटी कहलाती थी, इसीलिए इसे इकट्ठा और कच्चा शोरा
तैयार करने वालों को नोनिया कहते थे बिहार में नोनियों के बड़ी तायदाद में होने का
यही रहस्य है।
 
      

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